विकसित भारत अधिष्ठान बिल : उच्च शिक्षा सुधार की नई पटकथा

भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली लंबे समय से संरचनात्मक जटिलताओं, बहुस्तरीय नियमन और गुणवत्ता असमानताओं से जूझती रही है। विकसित भारत (शिक्षा) अधिष्ठान बिल इसी पृष्ठभूमि में एक ऐसे सुधारात्मक हस्तक्षेप के रूप में सामने आया है, जो नियमन की बिखरी हुई व्यवस्था को समेटकर शिक्षा को गुणवत्ता, नवाचार और वैश्विक प्रतिस्पर्धा की दिशा में ले जाने का दावा करता है। यह विधेयक न केवल नियामक ढांचे में बदलाव का प्रस्ताव करता है, बल्कि उच्च शिक्षा के दर्शन में भी एक निर्णायक मोड़ का संकेत देता है।
वर्तमान व्यवस्था में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC), अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (AICTE) और राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद (NCTE) जैसे अनेक निकाय कार्यरत हैं। इनके अधिकार-क्षेत्र अक्सर एक-दूसरे से टकराते रहे हैं, जिससे संस्थानों के लिए अनुपालन बोझ बढ़ा और निर्णय-प्रक्रिया जटिल बनी। नया विधेयक इन सभी के स्थान पर एकीकृत ‘विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान’ की परिकल्पना करता है, जिसके अंतर्गत नियमन, मानक निर्धारण और प्रत्यायन के लिए अलग-अलग परिषदें होंगी। समर्थकों का मानना है कि इससे नीति-निर्माण अधिक स्पष्ट, पारदर्शी और परिणामोन्मुख होगा।
इस बिल की एक प्रमुख विशेषता गुणवत्ता और प्रत्यायन पर विशेष बल है। शिक्षा को मात्र डिग्री-उत्पादन से निकालकर लर्निंग आउटकम और अनुसंधान प्रभाव से जोड़ने का प्रयास सराहनीय है। मानक परिषद द्वारा पाठ्यक्रम और शैक्षणिक मानकों का निर्धारण तथा प्रत्यायन परिषद द्वारा संस्थानों का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन—ये दोनों कदम भारत की उच्च शिक्षा को अंतरराष्ट्रीय मानकों के निकट ला सकते हैं। साथ ही, बहु-विषयक शिक्षा, नवाचार और उद्योग-सम्बद्धता को बढ़ावा देने का दृष्टिकोण राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 की भावना से भी मेल खाता है।
विधेयक का एक और उल्लेखनीय पक्ष विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रवेश और भारतीय संस्थानों के वैश्विक विस्तार की संभावनाएँ हैं। इससे छात्रों को देश में ही वैश्विक स्तर की शिक्षा उपलब्ध हो सकती है और ‘ब्रेन ड्रेन’ पर अंकुश लगेगा। प्रतिस्पर्धा से गुणवत्ता बढ़ने की उम्मीद भी स्वाभाविक है। परंतु यह लाभ तभी सार्थक होगा जब फीस-संरचना, समावेशन और सामाजिक न्याय जैसे प्रश्नों का संतुलित समाधान किया जाए।
हालाँकि, इस विधेयक को लेकर गंभीर आशंकाएँ भी हैं। सबसे बड़ा प्रश्न अत्यधिक केंद्रीकरण का है। एकल अधिष्ठान के पास व्यापक शक्तियाँ होने से राज्यों और विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता सीमित होने का खतरा है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में शिक्षा की ज़रूरतें क्षेत्र, भाषा और सामाजिक संरचना के अनुसार बदलती हैं। यदि निर्णय-प्रक्रिया अत्यधिक केंद्रीकृत हुई, तो यह विविधता प्रभावित हो सकती है।
इसी तरह, नियुक्तियों में कार्यपालिका की भूमिका पर भी सवाल उठते हैं। यदि अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति प्रक्रिया पर्याप्त रूप से स्वतंत्र और पारदर्शी नहीं हुई, तो अकादमिक स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। उच्च शिक्षा का नियमन केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि बौद्धिक और नैतिक उत्तरदायित्व भी है—जिसमें राजनीतिक हस्तक्षेप न्यूनतम होना चाहिए।
दंडात्मक प्रावधानों को लेकर भी मिश्रित प्रतिक्रियाएँ हैं। नियमों के उल्लंघन पर भारी जुर्माने और मान्यता रद्द करने की शक्ति एक ओर तो फर्जी संस्थानों पर लगाम कसती है, वहीं दूसरी ओर छोटे, ग्रामीण और संसाधन-विहीन संस्थानों के लिए भय का कारण बन सकती है। आवश्यकता इस बात की है कि दंड के साथ-साथ मार्गदर्शन, मेंटरिंग और सुधार के अवसर भी उपलब्ध कराए जाएँ, ताकि व्यवस्था दंडप्रधान नहीं, सुधारोन्मुख बने।
समग्रतः, विकसित भारत अधिष्ठान बिल उच्च शिक्षा सुधार की दिशा में साहसिक पहल है। इसकी सफलता इस पर निर्भर करेगी कि इसे किस संवेदनशीलता, पारदर्शिता और सहभागिता के साथ लागू किया जाता है। यदि स्वायत्तता और जवाबदेही के बीच संतुलन साधा गया, राज्यों और संस्थानों की विविध आवश्यकताओं का सम्मान किया गया, तथा गुणवत्ता के साथ समावेशन को भी प्राथमिकता दी गई—तो यह विधेयक भारत को सचमुच ज्ञान-आधारित विकसित राष्ट्र बनने की राह पर अग्रसर कर सकता है। अन्यथा, यह एक और केंद्रीकृत संरचना बनकर रह जाने का जोखिम भी रखता है। —- डॉ सुधीर शर्मा, अध्यक्ष, हिंदी एवं पत्रकारिता विभाग, कल्याण स्नातकोत्तर महाविद्यालय भिलाई छत्तीसगढ़





