छत्तीसगढ़

मरीज अस्पताल में भर्ती हैं, सामान चोरों के कब्जे में!! मेकाहारा में इलाज के साथ मोबाइल-पर्स भी ‘डिस्चार्ज’ हो रहे हैं, अब मीडिया की एंट्री पर भी इलाज शुरू!

रायगढ़@दीपक शोभवानी :- सरकारी अस्पतालों में इलाज सस्ता जरूर होता है, लेकिन अब लगता है इसके साथ एक ‘अदृश्य पैकेज’ भी मिलने लगा है – जिसमें चोरी, अव्यवस्था और अब “सेंसरशिप” मुफ़्त में शामिल है।

मेकाहारा – राजधानी का सबसे बड़ा अस्पताल, जहां जिंदगी और मौत के बीच झूलते मरीजों के पास अब एक और चिंता जुड़ गई है – अपना सामान बचाने की।

वार्ड के बाहर बैठे एक परिजन बोले,
“डॉक्टर बाद में आया, पहले मोबाइल गया!”
इतनी सटीक लाइनें शायद कवियों को भी ईर्ष्या में डाल दें। लेकिन यह व्यंग्य नहीं, हकीकत है।

सुरक्षा की पहरेदारी, या दिखावे की चाकरी?
चप्पे-चप्पे पर तैनात सुरक्षाकर्मी, लेकिन मरीजों और परिजनों की जेबें खाली। सवाल ये नहीं कि चोरी कैसे हुई, सवाल ये है कि इतने लोगों की मौजूदगी में चोरों का मनोबल इतना ऊंचा कैसे है?

और अब मीडिया भी संदिग्ध…?
इस अव्यवस्था पर जब कैमरे और माइक की नजरें उठीं, तो अस्पताल प्रशासन की भौंहें तन गईं। नया फरमान आया –
“मीडिया को रिपोर्टिंग से पहले अनुमति लेनी होगी।”

यानी अब मरीज को इलाज और पत्रकार को सच्चाई दिखाने – दोनों को पहले मंजूरी चाहिए।
बढ़िया है! लोकतंत्र का ICU में जाना अब बस एक प्रक्रिया रह गया है।

“कमीशन कनेक्शन” – नई बीमारी का नाम?
पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि अस्पताल में चल रहे घोटालों पर पर्दा डालने के लिए यह “मीडिया निषेध” योजना बनाई गई है?
एक जानकार ने कहा –
“जहां सवाल पूछे जाते हैं, वहां सेंसरशिप ही पहली दवा होती है!”

जनता क्या करे?
मरीज बोले – डॉक्टर को ढूंढो, मोबाइल को ढूंढो, और अब शायद सच्चाई को भी ढूंढना पड़ेगा।
यह वही सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था है, जो हर साल नए बजट में चमकाई जाती है – और फिर अस्पताल की दीवारों पर उतरती हुई पाई जाती है।

निष्कर्ष:
अस्पतालों में चोरी हो रही है, व्यवस्था बीमार है, और सच्चाई को छिपाने के लिए परदा डाला जा रहा है।
पर एक बात याद रखें – बीमारी का इलाज डॉक्टर करता है, लेकिन सिस्टम की बीमारी का इलाज सवाल करता है।
और जब सवाल भी बंधक बना दिए जाएं… तब असली खतरा शुरू होता है।

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