नेपाल में लोकतंत्र पर संकट, युवाओं का ‘Gen Z आंदोलन’ बना निर्णायक मोड़

काठमांडू। नेपाल एक बार फिर राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है। हाल ही में सोशल मीडिया प्रतिबंध, उसके खिलाफ भड़का युवाओं का व्यापक आंदोलन, हिंसा और अंततः प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली का इस्तीफ़ा—इन घटनाओं ने लोकतंत्र की नींव को हिलाकर रख दिया है। सवाल अब यह है कि क्या नेपाल का लोकतांत्रिक भविष्य सुरक्षित है या फिर अस्थिरता उसे पीछे ढकेल देगी।
नेपाल का लोकतांत्रिक सफ़र दशकों पुराने संघर्ष से जुड़ा है। राजशाही के लंबे शासन के बाद 1990 में पहली बार बहुदलीय लोकतंत्र की नींव रखी गई, लेकिन बार-बार की राजनीतिक अस्थिरता ने जनता का विश्वास डगमगाया। 2006 के जनआंदोलन और 2008 में राजशाही के अंत के बाद नेपाल “संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य” बना, मगर पंद्रह साल बाद भी लोकतंत्र अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर सका है।
4 सितंबर 2025 को सरकार ने फेसबुक, यूट्यूब, इंस्टाग्राम और व्हाट्सऐप जैसे प्लेटफार्मों पर अचानक प्रतिबंध लगा दिया। सरकार का तर्क था कि ये कंपनियाँ साइबर नियमों का पालन नहीं कर रहीं, लेकिन जनता ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला माना।
युवाओं का असंतोष सड़कों पर फूटा और “Gen Z आंदोलन” का रूप ले लिया। यह सिर्फ सोशल मीडिया की आज़ादी की लड़ाई नहीं थी, बल्कि भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और शासन की विफलताओं के खिलाफ गुस्से का विस्फोट था। आंदोलन हिंसक हुआ, 22 लोगों की मौत और सैकड़ों घायल हुए। भारी दबाव में प्रधानमंत्री ओली ने इस्तीफ़ा दिया और सरकार ने प्रतिबंध हटा लिया।
प्रदर्शनों के दौरान “राजा वापस लाओ” और “नेपाल को हिंदू राष्ट्र बनाओ” जैसे नारे गूँजे। विशेषज्ञों का मानना है कि यह लोकतंत्र से मोहभंग का संकेत है, लेकिन राजशाही की वापसी कोई स्थायी समाधान नहीं है।
नेपाल का लोकतंत्र चार बड़ी चुनौतियों से जूझ रहा है—भ्रष्टाचार, अस्थिर सरकारें, आर्थिक अवसरों की कमी और संस्थागत कमजोरी। जानकारों का कहना है कि यदि पारदर्शिता, युवा सहभागिता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आर्थिक सुधार जैसे कदम नहीं उठाए गए तो लोकतंत्र का भविष्य अंधकारमय हो सकता है।
हालाँकि, इतिहास गवाह है कि नेपाली जनता ने हर बार संघर्ष कर लोकतंत्र को चुना है। यही वजह है कि मौजूदा संकट को लोकतंत्र के परिपक्व होने के अवसर के रूप में भी देखा जा सकता है—बशर्ते नेतृत्व पारदर्शिता और जवाबदेही का रास्ता अपनाए।