बुनियादी सुविधाओं से ध्यान भटकाता आज का भारता बटेंगे तो कटेंगे
ट्रेनों में भीड़ स्थिति देख कर लगता ही नहीं है कि यह आज का भारत है
महंगाई पर सरकार मौन है रोज़मर्रा की जरूरतों का समान इतना महंगा हो गया है कि गृहणी अपने किचन को चलाने के लिए कटौती करने को मजबूर है ।
आज का भारत है जनाब जहां त्योहारों का मौसम हो , शादियों का वक्त हो या छुट्टियों का दौर हो फिर चाहे बस की यात्रा हो या ट्रेनों की यात्रा इंसान भेड़ बकरियों की तरह यात्रा करने को मजबूर है।
ट्रेनों में भीड़ स्थिति देख कर लगता ही नहीं है कि यह आज का भारत है लगता है जैसे भारत नहीं हो कर बांग्लादेश हो.. यह नया भारत जना
हम आज भी अपने नागरिकों को यात्राओं के लिए मूलभूत सुविधाएं भी नहीं दे पा रहे है .. हालात यह की दम घुटने से जान बचाने के लिए अफरा तफरी मच जाती है ।
हाल में ही छठ त्यौहार मनाने के लिए ट्रेन से यात्रा कर अपने घर जा रहा था जहां उसकी दम घुटने से उसकी मौत हो गई ।
बुनियादी सुविधाएं है क्या है रोटी ,कपड़ा और मकान …और यह बुनियादी सुविधाओं की मांग आज की नहीं भारत की आजादी के बाद आजाद भारत की पहली सरकार के वक्त से और आज के भारत भारत की सरकार तक.. जनाब बुनियादी सुविधाओं के मांग पर कोई फर्क नहीं आया है ।
हा हर असफल सरकार अपने विफलता को छुपाने के लिए नारा गढ़ता है जैसे गरीबी हटाओ इस नारा को देने वाली सरकार न जाने कितनी बार सरकार बनाई पर गरीबी के हालात नहीं सुधरे.. और आज के नए भारत में तो आधे से ज्यादा आबादी लगभग 80 करोड़ लोग सरकार द्वारा दीये जाने वाली 5 किलों अनाज पर आश्रित हो चुकी है या यू कहे की इन सरकारों ने अपना मोहताज बना लिया हैं।
गरीबी पर तो देश की सरकारों ने ऐसे हालात बना दिया कि अब इस पर जब भी बात होती है तो लगता है जैसे देश के नागरिकों के साथ और देश के साथ मजाक हो रहा हो।
याद है न नारा बहुत हुई महंगाई की मार अबकी बार मोदी सरकार
महंगाई पर सरकार मौन है रोज़मर्रा की जरूरतों का समान इतना महंगा हो गया है कि गृहणी अपने किचन को चलाने के लिए कटौती करने को मजबूर है । हालात यह है कि बीते सालों में हर समान का मूल्य लगभग 30% से 40% बढ़ गया है .. पर क्या इसके अनुपात में देश की नागरिकों की आय बढ़ी है ? शायद नहीं बल्कि कोविड के बाद कई सर्वों में देश के नागरिकों आय घटी है ।
हर हर मोदी घर घर मोदी याद है न हम देश के नागरिकों ने भरोसा किया और हमने मोदी जी को घर के अंदर तक पहुंच लिया .. पर हुआ क्या वही ढाक के तीन पात.. 2014 के आम चुनावाओ में मंचों से और चाय पे हुए चर्चाओं में किए गए वादों में शायद ही कोई भी पूरे हुए होंगे … मशलन “कालाधन वापस लाएंगे,35 रुपए में पेट्रोल, रुपए गिरते कीमत को रोकना, आदि ।
बटेंगे तो कटेंगे नारे पीछे देश की अखंडता और एकता बनाए रखना नहीं है अगर एकता की बात होती तो हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई की बात होती…बल्कि नारे के पीछे की मंशा को समझना होगा.. राहुल गांधी द्वारा उठाए जारहे जातीय जनगणना की मांग के काट के रूप में देखना चाहिए.. राहुल गांधी की यह मांग राजनीतिक हो सकती है .. पर देश की सामाजिक व्यवस्था, जातीय आधारित व्यवस्था और आर्थिक स्थित के आधार को समझना होगा । पूर्व में अलग अलग जातियों के साथ अत्याचार के अनेकों अनेक घटनाओं के साथ साथ सामाजिक अछूता के भी शिकार हुए है अगर उन्हें समाज में सामाजिक और आर्थिक बराबरी हासिल करानी है और सरकार की योजनाओं का समानुपातिक रूप से लाभ पहुंचना है तो जातीय जनगणना करानी होगी.. और अगर जातीय जनगणना करनी पड़ी तो इसे राहुल गांधी की राजनीतिक जीत मानी जाएगी
कुल मिलाकर तानाबाना यह है कि हर वक्त की सरकारों ने अपने असफलताओं और राजनीतिक सत्ता बचाए रखने के लिए समय समय पर नाराओ के माध्यम से बुनियादी मुद्दों से ध्यान भटकने और राजनीतिक सत्ता बनाए रखने के लिए टूल मात्र है … इसलिए “” बटेंगे तो कटेंगे”” को भी उसी रूप देखा जाने की जरूरत है।
यह लेखक का निजी विचार है
राकेश प्रताप सिंह परिहार ( कार्यकारी अध्यक्ष अखिल भारतीय पत्रकार सुरक्षा समिति , पत्रकार सुरक्षा कानून के लिए संघर्षरत)