गुरू घासीदास बाबाजी ने ‘मानव-मानव एक समान’ के संदेश से विश्व को एक परिवार बनाया तो वहीं ‘पर नारी को माता समान मानो’ के विचार से आधी आबादी को पूर्ण आबादी के शिखर सम्मान तक पहुँचा दिया।

सतनाम संस्कृति पर गर्व
भारतीय समाज की आत्मा करुणा, समानता और सहअस्तित्व में निहित है। इन्हीं मानवीय मूल्यों को सरल, सहज और सर्वग्राह्य रूप में जन-जन तक पहुँचाने का कार्य परम पूज्य बाबा गुरु घासीदास जी ने किया। उन्होंने “मनखे-मनखे एक बरोबर” का उद्घोष कर पूरे संसार को एक परिवार के रूप में देखने की दृष्टि दी और “पर नारी माता समान” कहकर समाज की आधी आबादी को पूरी आबादी के सर्वोच्च सम्मान तक पहुँचा दिया। यही सतनाम संस्कृति की मूल चेतना है और इसी पर हमें गर्व है।
गुरु घासीदास बाबा जी का जन्म 18 दिसंबर 1756 को छत्तीसगढ़ की पावन भूमि गिरौदपुरी में हुआ। बाल्यकाल से ही वे संवेदनशील, चिंतनशील और सत्य की खोज में रत रहने वाले व्यक्तित्व थे। समाज में फैली जातिगत विषमता, छुआछूत, अंधविश्वास और नारी के प्रति उपेक्षा ने उनके मन को गहराई से पीड़ा दी। उन्होंने एकांत में कठोर साधना और आत्मचिंतन के माध्यम से सत्य का बोध किया और मानवता को “सतनाम” अर्थात् सत्य के मार्ग पर चलने का संदेश दिया। उनके लिए ईश्वर किसी मूर्ति या स्थान तक सीमित नहीं था बल्कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर बसे सत्य, प्रेम और करुणा में विद्यमान था।
गुरु घासीदास बाबा का सबसे महान योगदान समाज को समानता का बोध कराना है। “मानव-मानव एक समान” का विचार संपूर्ण मानव सभ्यता के लिए जीवन-दर्शन है। इस एक वाक्य में जाति, धर्म, रंग, भाषा, लिंग और वर्ग के आधार पर किए जाने वाले हर प्रकार के भेदभाव का खंडन निहित है। बाबा जी ने स्पष्ट किया कि सभी मनुष्य समान अधिकार, समान सम्मान और समान अवसर के अधिकारी हैं। यदि इस विचार को व्यवहार में उतार लिया जाए, तो समाज से ऊँच-नीच, शोषण और हिंसा स्वतः समाप्त हो सकती है। यह विचार आज के लोकतांत्रिक और मानवाधिकार आधारित समाज की आत्मा भी है।
इसी प्रकार “नारी को माता समान मानो” गुरु घासीदास बाबा का अत्यंत क्रांतिकारी और दूरदर्शी विचार है। जिस युग में नारी को समाज में दोयम दर्जे का स्थान प्राप्त था उस समय नारी को माता का दर्जा देकर उन्होंने उसे सर्वोच्च सम्मान प्रदान किया। इस विचार का गहरा अर्थ है कि नारी केवल घर या समाज की जिम्मेदारी उठाने वाली नहीं बल्कि सृष्टि की सर्जक है। नारी का सम्मान ही समाज की नैतिकता और सभ्यता की कसौटी है। जहाँ नारी सुरक्षित, सम्मानित और सशक्त होती है वही समाज सच्चे अर्थों में उन्नत और मानवीय कहलाता है। आज के समय में जब नारी हिंसा और असमानता की घटनाएँ बढ़ रही हैं तब यह विचार समाज को संवेदनशील और उत्तरदायी बनने की प्रेरणा देता है।
गुरु घासीदास बाबा के विचार किसी एक कालखंड या समुदाय तक सीमित नहीं हैं। वे सार्वकालिक और सार्वभौमिक हैं। उन्होंने अंधविश्वास, पाखंड और आडंबर का विरोध कर समाज को नैतिक, सरल और सत्यनिष्ठ जीवन जीने की राह दिखाई। सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा और भाईचारे को उन्होंने जीवन का मूल आधार बताया। उनका दर्शन समन्वय, प्रेम व एकता सिखाता है। यही कारण है कि सतनाम संस्कृति संपूर्ण मानव समाज में शांति, सद्भाव और समानता की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करती है।
आज जब विश्व हिंसा, असहिष्णुता और वैमनस्य से जूझ रहा है तब गुरु घासीदास बाबा का संदेश और भी अधिक प्रासंगिक हो गया है। यदि हम “मानव-मानव एक समान” को केवल कहने तक सीमित न रखकर अपने आचरण में उतारें और “नारी को माता समान मानो” को जीवन-मूल्य बना लें, तो समाज में स्वतः प्रेम, भाईचारा और शांति स्थापित हो सकती है।
यही सतनाम संस्कृति की सच्ची पहचान है।
अंततः सतनाम संस्कृति पर गर्व करना अतीत की महान परंपरा को स्मरण करने के साथ-साथ वर्तमान को मानवीय बनाने और भविष्य को सुरक्षित करने का संकल्प है। गुरु घासीदास बाबा का दर्शन हमें सिखाता है कि सच्चा धर्म मानवता है और सच्ची साधना मनुष्य को मनुष्य समझने में है। जब तक यह चेतना जीवित रहेगी तब तक सतनाम संस्कृति मानव समाज को सत्य, प्रेम और समानता के पथ पर आगे बढ़ाती रहेगी।
— राकेश नारायण बंजारे
(सामाजिक चिंतक, लेखक)
खरसिया





