छत्तीसगढ़

तमनार में जंगल कटाई और पर्यावरण विवाद

छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के तमनार ब्लॉक में बसे मुड़ागांव में इन दिनों जंगल कटाई का मुद्दा सुर्खियों में है। अडानी समूह द्वारा महाराष्ट्र जनरेशन कंपनी के लिए कोयला खनन के उद्देश्य से की जा रही इस कटाई को लेकर स्थानीय स्तर पर तीखा विरोध देखने को मिल रहा है। वन और राजस्व अधिकारियों का दावा है कि यह कटाई सरकारी भूमि पर हो रही है और इसके लिए सभी जरूरी अनुमतियां ली गई हैं। फिर भी, यह मुद्दा न केवल पर्यावरणीय चिंताओं को जन्म दे रहा है, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक विवादों को भी हवा दे रहा है। यह लेख इस मामले के दोनों पक्षों की पड़ताल करता है और क्षेत्र में पर्यावरण, विकास और सामाजिक न्याय के बीच टकराव की गहरी परतों को उजागर करता है।

तमनार क्षेत्र पहले से ही कोयला खदानों और पावर प्लांट्स का गढ़ रहा है। इन परियोजनाओं के लिए पहले भी सैकड़ों पेड़ काटे जा चुके हैं, जिसके खिलाफ स्थानीय स्तर पर विरोध हुआ था। उस समय प्रभावित किसानों और भूमि मालिकों को मुआवजा दिया गया, जिसके चलते कई परिवारों ने नए घर, दुकानें और फार्महाउस बनाए। आज जब मुड़ागांव में सरकारी जमीन पर पेड़ काटे जा रहे हैं, तो एक बार फिर हंगामा मचा है। सवाल यह है कि आखिर यह विरोध क्यों हो रहा है, जबकि पहले भी ऐसी कटाई और मुआवजा देने की प्रक्रिया देखी जा चुकी है।

इस विरोध में राजनीतिक रंग भी घुला हुआ है। कांग्रेस विधायक विद्यावती सिदार और पूर्व मंत्री सत्यानंद राठिया जैसे नेता इस कटाई के खिलाफ सड़कों पर उतरे, लेकिन प्रशासन ने उन्हें हिरासत में ले लिया। कई लोग इस कार्रवाई को असंवैधानिक मानते हैं और इसे कॉरपोरेट हितों की रक्षा के लिए लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन करार दे रहे हैं। लेकिन इन नेताओं की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं।

जब कुंजेमुरा में पावर प्लांट के लिए भूमि अधिग्रहण हुआ था, तब ये नेता चुप क्यों रहे? राठिया के गांव रोडोपाली में मुआवजे के पैसे से बड़े-बड़े घर, दुकानें और फार्महाउस बन रहे हैं, जिससे यह सवाल उठता है कि क्या यह विरोध केवल दिखावा है या वास्तव में पर्यावरण और स्थानीय हितों की चिंता है। यह दोहरा चरित्र न केवल नेताओं की मंशा पर सवाल उठाता है, बल्कि स्थानीय ग्रामीणों को भी भ्रमित करता है, जिन्हें इस खेल में मोहरा बनाया जा रहा है।

कोयला खनन और पावर प्लांट्स के पक्ष में तर्क दिया जाता है कि ये परियोजनाएं आर्थिक विकास और रोजगार सृजन के लिए जरूरी हैं। छत्तीसगढ़ जैसे संसाधन-समृद्ध राज्य में कोयला बिजली उत्पादन और औद्योगिक प्रगति का आधार है। अधिकारियों का कहना है कि कटाई विधिवत अनुमतियों के साथ हो रही है और मुआवजा देकर प्रभावितों की भरपाई की जा रही है। पर्यावरण जन सुनवाई में स्थानीय लोग हिस्सा लेते हैं और कई बार मुआवजे के लालच में परियोजनाओं का समर्थन भी करते हैं।

लेकिन इसके दूसरी तरफ एक कड़वी सच्चाई है। तमनार में बड़े पैमाने पर जंगल कटाई से जैव-विविधता को गंभीर खतरा पैदा हो गया है। जंगल न केवल पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखते हैं, बल्कि स्थानीय आदिवासी समुदायों की आजीविका का आधार भी हैं। हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति जैसे संगठन और ग्रामीण आरोप लगाते हैं कि ग्राम सभाओं की सहमति के बिना यह कटाई हो रही है, जो वन अधिकार अधिनियम का उल्लंघन है। साथ ही, खदानों और प्लांट्स से होने वाला हवा, पानी और मिट्टी का प्रदूषण स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य और कृषि को नुकसान पहुंचा रहा है।

यह मुद्दा केवल मुड़ागांव तक सीमित नहीं है। रायकेरा, कुदुरमहुआ, अजितग्राम, दुर्गापुर और धरमजयगढ़ जैसे क्षेत्रों में भी जंगल कटाई और खनन का विरोध हुआ है, लेकिन वहां की चुप्पी सवाल उठाती है। क्या इन क्षेत्रों में विरोध कमजोर पड़ता है क्योंकि वहां मुआवजा स्वीकार कर लिया जाता है, या फिर स्थानीय नेताओं की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं? यह असंगति इस बात की ओर इशारा करती है कि विरोध कई बार राजनीतिक अवसरवादिता का हिस्सा हो सकता है।

मुड़ागांव का यह विवाद विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच के तनाव को उजागर करता है। एक तरफ आर्थिक प्रगति और रोजगार के अवसर हैं, तो दूसरी तरफ पर्यावरणीय विनाश और आदिवासी समुदायों के अधिकारों का हनन। प्रशासन का दावा है कि सब कुछ कानून के दायरे में हो रहा है, लेकिन ग्राम सभाओं की अनदेखी और नेताओं की हिरासत इस दावे पर सवाल उठाती है। नेताओं का दोहरा रवैया भी इस मुद्दे को और जटिल बनाता है। कई बार स्थानीय लोग मुआवजे के लिए अपनी आपत्तियों को भूल जाते हैं, लेकिन यह अल्पकालिक लाभ लंबे समय तक पर्यावरण और आजीविका को होने वाले नुकसान की भरपाई नहीं कर सकता।

इस समस्या का हल तलाशने के लिए पारदर्शिता और जवाबदेही जरूरी है। खनन परियोजनाओं के लिए ग्राम सभाओं की सहमति को अनिवार्य करना होगा। पर्यावरण जन सुनवाई को और अधिक खुला और निष्पक्ष बनाना होगा। जंगल कटाई के प्रभाव को कम करने के लिए पुनर्वनीकरण और पर्यावरण संरक्षण की योजनाओं को सख्ती से लागू करना होगा। प्रभावित समुदायों को न केवल उचित मुआवजा, बल्कि वैकल्पिक आजीविका के साधन भी मुहैया कराने होंगे। साथ ही, नेताओं को अपने दोहरे रवैये को छोड़कर एक समान रुख अपनाना होगा, ताकि यह मुद्दा राजनीतिक खेल का हिस्सा न बने।

मुड़ागांव का यह विवाद हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए। यदि इस दिशा में ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो न केवल हम अपने प्राकृतिक संसाधनों को खो देंगे, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक अस्थिरता भी बढ़ेगी। यह समय है कि सभी पक्ष एकजुट होकर इस चुनौती का सामना करें, ताकि न विकास रुके और न ही पर्यावरण का नुकसान हो।
लेख ०२ – श्रवण चौहान

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