भाजपा में विलय की ओर बढ़ता चुनाव आयोग?

प्रकाशनार्थ
(आलेख : राजेंद्र शर्मा)
सोशल मीडिया पर बीते दिनों चल रहे उस मज़ाक को अब और गंभीरता से देखा जाने लगा है, जिसमें कहा गया था कि चुनाव आयोग भाजपा में विलय कर चुका है। हालांकि आयोग ने इसका खंडन किया था और दावा किया था कि वह निष्पक्ष है, लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार की पहली खुली प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद हालात कुछ और ही संकेत देते हैं।
यह प्रेस कॉन्फ्रेंस ऐसे समय बुलाई गई थी जब विपक्ष, विशेष रूप से राहुल गांधी, मतदाता सूचियों की गड़बड़ियों और बिहार में चल रही एसआईआर प्रक्रिया पर गंभीर सवाल उठा रहे थे। लेकिन सवालों का जवाब देने की बजाय आयोग ने चुनौती भरे लहजे में विपक्ष से एफिडेविट या माफी की मांग की। इससे यह धारणा और गहरी हो गई कि आयोग रेफरी नहीं, बल्कि सत्तापक्ष का खिलाड़ी बन चुका है।
राहुल गांधी ने हाल ही में बेंगलुरु की महादेवपुरा विधानसभा सीट की मतदाता सूची में एक लाख से ज्यादा गड़बड़ियां उजागर की थीं—जिनमें फर्जी पते, मृतकों के नाम पर वोट, एक ही घर में दर्जनों वोट और पहली बार पंजीकृत अस्सी वर्ष के मतदाता जैसे उदाहरण शामिल थे। सामान्यत: ऐसी स्थिति में आयोग को जांच कर सुधार करना चाहिए था, लेकिन इसके बजाय आयोग ने गड़बड़ियां उजागर करने वालों पर ही कार्रवाई शुरू कर दी। यही नहीं, बिहार की एसआईआर प्रक्रिया में भी भारी अनियमितताओं की शिकायतों को दरकिनार कर दिया गया।
आयोग पर आरोप है कि वह मशीन रीडेबल मतदाता सूचियां देने से बच रहा है, जबकि सुप्रीम कोर्ट तक ने इस स्वरूप में सूची उपलब्ध कराने का निर्देश दिया है। यह रुख गड़बड़ियों पर पर्दा डालने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है। मतदान की वीडियोग्राफी का रिकार्ड उपलब्ध न कराने के तर्क भी इसी संदेह को और मजबूत करते हैं।
इन परिस्थितियों में आयोग की निष्पक्षता सवालों के घेरे में है। विपक्ष की “वोटर अधिकार यात्रा” को मिल रहा व्यापक जनसमर्थन इसी अविश्वास का संकेत है। सवाल साफ है—क्या चुनाव आयोग सचमुच लोकतंत्र का संरक्षक बना रह पाएगा या फिर सत्तापक्ष का अंग बनकर रह जाएगा?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)





