छत्तीसगढ़

क्या लोकतंत्र का चौथा स्तंभ केवल दिखावे भर का रह गया है,

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देश में पत्रकारिता करना,वह भी बिना निश्चित सैलरी के,किसी आर्थिक युद्ध लड़ने जैसा है।एक फ्रीलांसर पत्रकार को रोज़ाना ख़बरों की तलाश में निकलना होता है,मगर बदले में न तो स्थायी आय मिलती है,न सामाजिक सुरक्षा।

निजी चैनल और अख़बार अपनी टीआरपी और रीडरशिप बढ़ाने के लिए फ्रीलांसरों का इस्तेमाल तो करते हैं,पर मेहनताना देने में पीछे हट जाते हैं। ज़मीनी पत्रकारिता करने वालों को पेट्रोल तक का खर्च अपनी जेब से उठाना पड़ता है। ऊपर से उपकरण, इंटरनेट, यात्रा और रिपोर्टिंग में लगने वाला समय सब कुछ बिना किसी तय पारिश्रमिक के होता है।

यह व्यवस्था पत्रकारों को धीरे-धीरे आर्थिक रूप से तोड़ देती है। कई पत्रकार कर्ज़ में डूब जाते हैं, तो कुछ को मजबूरी में पेशा छोड़ना पड़ता है। ऐसे में सवाल उठता है: क्या लोकतंत्र का चौथा स्तंभ केवल दिखावे भर का रह गया है? क्या ईमानदारी से काम करने वाले पत्रकारों को यूं ही आर्थिक तंगहाली में जीना पड़ेगा?
ये हालात पत्रकारों की गरिमा और लोकतंत्र दोनों पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं।

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