
जिनके माता–पिता खेतों में, सड़कों पर और दफ्तरों में पसीना बहाते हैं, याद रखिए, सिर्फ उनके ही बेटे–बेटियाँ रणभूमि में जाते हैं। जो युद्ध–युद्ध चिल्लाते हैं, क्या उनके बच्चे जंग लड़ने जाते हैं?
आज जो बात–बात पर उग्र होकर शहर–गाँव की गलियों में दंगे–फसाद कराते हैं, मस्जिदों की सीढ़ियाँ चढ़कर ‘जय श्री राम’ चिल्लाते हैं, उनसे पूछिए, कब और कहाँ वे देश के सच में काम आते हैं? जो युद्ध–युद्ध चिल्लाते हैं, क्या उनके बच्चे जंग लड़ने जाते हैं?
सीमाओं पर जब गरजती हैं घनघोर तोपें,
और दनदनाते गोले सीने को छलनी कर जाते हैं,
तब बुझते हैं दीपक उन्हीं घरों के,
जहाँ लोग खट–खट कर बमुश्किल दो वक्त की रोटी जुटाते हैं।
जो युद्ध–युद्ध चिल्लाते हैं, क्या उनके बच्चे जंग लड़ने जाते हैं?
जब घर–घर में युद्ध–उन्माद गूंजता है,
तो सहम जाती हैं साँसें उन माताओं की, बहनों की,
जिनके बेटे और भाई मातृभूमि की रक्षा का प्रण उठाते हैं।
पिता खेतों में खुली आँखों से सिसकते हैं,
बीवी दरवाजे पर ठिठक जाती है,
सोचती है—कब और कैसे लौटेंगे वो कदम,
जो आज इस घर से विदा हो रहे हैं।
जो युद्ध–युद्ध चिल्लाते हैं, क्या उनके बच्चे जंग लड़ने जाते हैं?
युद्ध का उन्माद तो उत्सव है उन लोगों का,
जो वातानुकूलित कमरों से अपनी राजनीति चलाते हैं,
या उन लोगों का, जो अपने नेताओं के बंधुआ बन धर्मवीर कहलाते हैं। क्या तुमने कभी चीखें सुनी हैं महलों से,
सरकारी या निजी कार्यालयों से,
या बड़े–बड़े मंत्रालयों से?
चीत्कारें तो उठती हैं अक्सर
उन कच्चे–पक्के, टूटे–फूटे, आधे–अधूरे घरों से,
जिनके सपूत शहादत के बाद तिरंगे में लिपटे लौटते हैं।
जो युद्ध–युद्ध चिल्लाते हैं, क्या उनके बच्चे जंग लड़ने जाते हैं?
जब युद्ध का आगाज होता है,
तो वृद्ध माता–पिता का हृदय हर पल रोता है,
रणभूमि में कहीं खड़ा है उनका वह टुकड़ा,
जो माँ के आँचल में पला–बढ़ा,
अब संगीनों के साए में जागता और सोता है।
वो क्या जानें युद्ध की विभीषिका,
जो कागजों पर संख्याएँ लिखकर अपना नफा–नुकसान गिनते हैं। जो युद्ध–युद्ध चिल्लाते हैं, क्या उनके बच्चे जंग लड़ने जाते हैं?
कुछ मुट्ठीभर ताकतवर लोग,
जिनके इशारे पर पलटन–दर–पलटन,
संगीनें–दर–संगीनें और गोलों–दर–गोलें भेजे जाते हैं,
वो बहेलिए बनकर हमारे बच्चों के सौदागर बन जाते हैं,
कभी कफन–चोर कहलाते हैं।
जो युद्ध–युद्ध चिल्लाते हैं, क्या उनके बच्चे जंग लड़ने जाते हैं?