“एक कोरवा की ज़मीन, एक आदिवासी की जान – और एक सिस्टम की चुप्पी”

📍 राजपुर, बलरामपुर-रामानुजगंज |
“जब ज़मीन छीनी गई, तो ज़ुबान भी छीन ली गई।
जब आवाज़ उठाई, तो जान भी चली गई।”
छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचल में एक गूंजता नाम — विनोद अग्रवाल उर्फ “मग्गू सेठ”। कभी व्यापारी, अब गंभीर आपराधिक आरोपों में घिरा हुआ एक ऐसा चेहरा, जिस पर आदिवासी ज़मीन हथियाने, कागज़ी जाल बिछाने और आत्महत्या के लिए उकसाने तक के आरोप लगे हैं।
और अब, छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने विनोद अग्रवाल समेत 6 आरोपियों की अग्रिम व नियमित जमानत याचिकाएं खारिज कर दी हैं।
न्यायमूर्ति संजय कुमार जायसवाल की एकल पीठ ने यह निर्णय 1 जुलाई 2025 को सुनाया।
🔍 मामले की जड़: ज़मीन का सौदा, जिसमें सहमति गायब थी
पीड़िता जुबारो बाई — पहाड़ी कोरवा जनजाति की महिला, जिसकी पुश्तैनी ज़मीन उसके पति भैराराम के नाम पर दर्ज थी।
18 नवंबर 2024 को, बगैर किसी पारिवारिक सहमति या मुआवज़े के, यह ज़मीन एक व्यक्ति शिवराम के नाम पर पंजीकृत कर दी गई।
आरोप: कागज़ी रजिस्ट्री धोखे से करवाई गई। पीड़िता के अंगूठे का उपयोग कर छलपूर्वक ज़मीन हड़पी गई। और इस पूरे खेल का सूत्रधार था — मग्गू सेठ नेटवर्क।
💔 आत्मसम्मान की हत्या से आत्महत्या तक
ज़मीन जाने के बाद, भैराराम पर शुरू हुआ मानसिक उत्पीड़न।
दिन-रात धमकियां, अपमान, पीछा — “यह ज़मीन अब हमारी है, भाग जा…”
आख़िरकार, 21-22 अप्रैल 2025 की रात को, भैराराम ने आत्महत्या कर ली।
बेटे संत्राम की चीख गूंज उठी:
“बापू का आत्मसम्मान छीन लिया था इन्होंने… अब जीवन भी छीन लिया।”
⚖️ आरोप, अपराध और अदालत का रुख
दर्ज अपराध:
- भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 108, 3(5)
- SC-ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3(2)(v)
- धोखाधड़ी का एक अन्य मामला — क्र. 90/2025
जिनकी ज़मानत खारिज हुई:
- विनोद अग्रवाल
- प्रवीण अग्रवाल
- दिलीप टिग्गा
- चतुरगुण यादव
- राजेन्द्र मिंज
- धरमपाल कौशिक
राज्य की दलील:
उपसरकार अधिवक्ता सुनीता मणिकपुरी ने तर्क दिया कि जाँच अभी प्रारंभिक चरण में है और आरोपी ज़मानत पर छूटकर जाँच को प्रभावित कर सकते हैं।
अदालत का निर्णय:
“जांच अधूरी है, प्रथम दृष्टया भूमिका स्पष्ट है — अभी ज़मानत नहीं दी जा सकती।”
🕸️ नेटवर्क की जड़ें: जुबानबंदी, दबाव और डर का शासन
विनोद उर्फ मग्गू सेठ पर पहले से 9 आपराधिक मामले दर्ज हैं — फिर भी वह अब तक ‘छूटा’ क्यों?
क्योंकि यह सिर्फ ज़मीन की लूट नहीं — एक प्रभावशाली गठजोड़ की कहानी है।
स्थानीय नेताओं, पुलिस, राजस्व अधिकारियों और दलालों के साथ मिलीभगत का जाल, जो आदिवासी आवाज़ों को चुप कराता है।
एक स्थानीय पत्रकार ने बताया —
“नाम लिया, तो ‘केस’ में डाल दिए जाओगे।”
🔔 न्याय की पहली दस्तक — मगर लड़ाई अभी बाकी है
हाईकोर्ट का यह आदेश पहाड़ी कोरवा समाज के लिए न्याय की पहली किरण है।
पर यह सिर्फ शुरुआत है।
🔜 अगले एपिसोड में पढ़िए:
- “रजिस्ट्री रैकेट”: कैसे बनते हैं झूठे कागज़, किसके आदेश से?
- “भरोसे की कब्र”: आदिवासी ज़मीनों पर कब्ज़े का सुनियोजित सिस्टम
- “खामोश पुलिस, ताक़तवर दलाल”: सत्ता की चुप्पी क्यों?
- “लूप लाइन के अफसर”: किसे बैठाकर बचाया गया सेठ को?
- “कौन नेता, किस पार्टी से?”: किनकी छाया में पनपता रहा ‘मग्गू सेठ नेटवर्क’?