सावरकर के ‘हिंदुत्व’ को डॉक्टर अम्बेडकर ने सिर्फ असंगत नहीं, देश के लिए खतरनाक भी बताया था – आलेख : उर्मिलेश
संसद के शीतकालीन सत्र में ‘संविधान के 75 वर्ष’ के गौरवशाली मौके पर लोकसभा में दो दिनों की बहुत जीवंत बहस हुई। इसमें तमाम तरह के राजनीतिक और वैचारिक मुद्दे उठे। सत्तापक्ष का जोर समसामयिक राजनीतिक मुद्दों पर रहा।
कई विपक्षी नेताओं ने समकालीन राजनीतिक मुद्दों के अलावा संविधान और राष्ट्र-निर्माण से जुड़े बड़े वैचारिक सवालों को भी उठाया। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान और स्वतंत्र भारत में सक्रिय रहे कुछ बड़े नेताओं और विचारकों के योगदान की भी चर्चा हुई।
इस सिलसिले में वी डी सावरकर और डॉक्टर बी आर अम्बेडकर के नाम बार-बार लिये गये। सत्तापक्ष की तरफ से बहस की शुरुआत करते हुए रक्षामंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता राजनाथ सिंह ने सबसे पहले वी डी सावरकर का नामोल्लेख किया। उनका कहना था कि संविधान सभा में कई बड़े नेता शामिल नहीं थे पर संविधान-निर्माण की वैचारिक-प्रक्रिया में उनके योगदान को भी नहीं भुलाया जाना चाहिए। इस सिलसिले में उन्होंने मदन मोहन मालवीय सहित कई लोगों के साथ वी डी सावरकर का भी नाम लिया।
निस्संदेह, वी डी सावरकर स्वाधीनता आंदोलन के वैचारिक नेताओं में थे। वह आंदोलन में हिंदुत्व की उस धारा का प्रतिनिधित्व करते थे, जिसका मकसद भारत को ‘हिन्दुस्थान’ या ‘हिन्दोस्थान’ के तौर पर एक ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाना था। वह बेहद विवादास्पद भी रहे। ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें अंडमान जेल में रखा। अंततः वहां से उन्हें कई माफीनामों के बाद ‘मुक्ति’ मिली। फिर उन्होंने अपने कामकाज को नये ढंग से संयोजित किया और रत्नागिरी में रहते हुए सामाजिक कामकाज पर ज्यादा ध्यान दिया।
1948 में महात्मा गांधी की नृशंस हत्या में अभियुक्त के तौर पर उनकी गिरफ्तारी हुई। लेकिन मुकदमे की सुनवाई के दौरान साक्ष्यों की कमी का उन्हें फायदा मिला और रिहा कर दिये गये।
वी डी सावरकर के बारे में यह ज़रूर कहा जा सकता है कि वह ‘हिंदुत्व’ की वैचारिकी के शुरुआती प्रतिपादकों में थे। सन् 1923 में उन्होंने हिंदुत्व की अपनी वैचारिकी को व्याख्यायित करते हुए किताब लिखी। उसी पुस्तक का संशोधित-परिवर्द्धित संस्करण 1928 में छपा। वी डी सावरकर को ‘टू नेशन थियरी’ के प्रतिपादक के तौर पर भी जाना जाता है। मो. अली जिन्ना से भी कुछ साल पहले उन्होंने दो राष्ट्रों के अपने विवादास्पद सिद्धांत को सामने लाया था। पर उनका सिद्धांत मोहम्मद अली जिन्ना के पूर्ण विभाजनकारी सिद्धांत से कुछ अलग था।
भारतीय संविधान की ड्रॉफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन और विख्यात विचारक डॉ बी आर अम्बेडकर ने दोनों के विभाजनकारी सिद्धांत को सिरे से खारिज किया था। इस मामले में वह गांधी जी की वैचारिकी के कुछ नजदीक दिखाई देते हैं, जिनसे उनका हमेशा वैचारिक संघर्ष जारी रहा।
अपने इस आलेख में मैंने वी डी सावरकर और बी आर अम्बेडकर के विचारों की रोशनी में दोनों की भारत-राष्ट्र की बिल्कुल अलग संकल्पना को समझने की कोशिश की है। सावरकर ने अपनी दो राष्ट्रों की सैद्धांतिकी को व्याख्यायित करते हुए अनेक मौकों पर बोला और लिखा।
गांधी जी और कांग्रेस के अन्य उदारपंथी नेताओं से अलग एक हिन्दुत्ववादी नेता के तौर पर उनका मानना था कि इंडिया यानी भारत में दो राष्ट्र हैं-हिन्दू और मुस्लिम। ये दोनों अलग-अलग राष्ट्र हैं। यहां तक उनकी सैद्धांतिकी का जिन्ना की सैद्धांतिकी से साम्य है।
लेकिन सावरकर साहब जिन्ना साहब की तरह इंडिया यानी भारत को भौगोलिक रूप से दो अलग-अलग मुल्कों में बांटने के पक्षधर नहीं हैं। वह कहते हैं कि एक ही भौगोलिक इकाई के तहत दोनों राष्ट्र-हिन्दू और मुस्लिम साथ रह सकते हैं। हिंदू महासभा के सन् 1939 में आयोजित कलकत्ता सम्मेलन में सावरकर ने अपने विचारों को सार्वजनिक तौर पर व्याख्यायित किया।
उन्होंने ‘दो राष्ट्रों के अपने सिद्धांत’ को समझाते हुए कहा, ‘स्वराज का तात्पर्य है कि हिंदुओं के लिए उनका अपना स्वराज्य होना चाहिए, जिसमें उनका हिंदुत्व प्रभावी हो, जिस पर गैर-हिंदू लोगों का प्रभुत्व न हो, चाहे वे हिंदुस्तान की सीमा में रहने वाले हों या उसकी सीमा के बाहर।’
अपने स्वराज्य के लिए सावरकर ने दो बातों पर जोर दिया है, अपने देश इंडिया या भारत का नाम हिंदु्स्थान या हिंदोस्थान बनाये रखा जाय। दूसरी बात कि संस्कृत देव-भाषा के रूप में रहे और संस्कृतनिष्ठ हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाया जाय। संस्कृत भाषा को हमेशा ही हमारे हिंदू युवकों के शास्त्रीय पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग बनाए रखा जाना चाहिए।