जनजातीय गौरव दिवस पर नेताओं की तस्वीरें, लेकिन जमीनी हकीकत उजागर—जनजातीय समुदाय की बदहाल स्थिति पर उठे सवाल

परमेश्वर राजपूत, गरियाबंद
गरियाबंद- एक ओर प्रदेशभर में जनजातीय गौरव दिवस को धूमधाम से मनाया जा रहा है, मंचों पर बड़े-बड़े भाषण और सोशल मीडिया में नेताओं की भव्य तस्वीरें जगह ले रही हैं, वहीं दूसरी ओर जनजातीय समुदाय की वास्तविक स्थिति तस्वीरों के चमक-दमक के बिल्कुल विपरीत नजर आती है।
विगत दिनों गरियाबंद जिले के मैनपुर क्षेत्र से बड़ी संख्या में जनजातीय समुदाय के लोग अपनी मूलभूत समस्याओं को लेकर राजधानी रायपुर की ओर पदयात्रा के लिए निकल पड़े थे। समुदाय की मांग थी कि वर्षों से लंबित मूलभूत सुविधाओं—सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य, वनाधिकार, पेयजल व रोजगार—को तत्काल प्राथमिकता दी जाए। पदयात्रा के दौरान प्रशासन हरकत में आया और गरियाबंद जिले के कलेक्टर ने प्रतिनिधिमंडल से चर्चा कर उन्हें समझाइश दी, जिसके बाद ग्रामीणों को वापस लौटा दिया गया।
लेकिन इन समझाइशों और आश्वासनों के बीच जमीनी हालात अभी भी जस के तस हैं। जिला मुख्यालय गरियाबंद से महज़ 30-40 किलोमीटर की दूरी पर बसे कई जनजातीय बाहुल्य गांवों में बच्चों के लिए प्राथमिक शाला तक की व्यवस्था नहीं है। बच्चे आज भी या तो कई किलोमीटर पैदल चलकर पड़ोसी गांवों में पढ़ने जाते हैं, या फिर शिक्षा से दूर हो रहे हैं। वहीं कई जनजातीय परिवारों को अभी तक वनाधिकार पट्टे से वंचित हैं तो कई परिवारों को अभी तक प्रधानमंत्री आवास का लाभ भी नहीं मिल पाया है साथ ही कई जनजातीय गांवों तक पहुंचने के लिए न पुल न ही पक्की सड़कें बन पाया है। और अभी भी बारिश के दिनों में जद्दोजहद की जिंदगी जीने मजबूर हैं।
ग्रामीणों का कहना है कि चुनावी मौसम आते ही जनजातीय समाज की बात होती है, “गौरव दिवस” मनाया जाता है, लेकिन वास्तविक विकास, शिक्षा की सुविधा और बुनियादी अधिकारों को लेकर प्रशासन और जनप्रतिनिधियों की गंभीरता आज भी सवालों के घेरे में है।
स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि जनजातीय गौरव दिवस अब सिर्फ “वोट बैंक उत्सव” बनकर रह गया है, जबकि जमीनी हकीकत यह है कि मूलभूत सुविधाओं के अभाव में समुदाय का भविष्य अंधकार में है।
जनजातीय समुदाय अब चाहता है कि घोषणाओं और कार्यक्रमों से आगे बढ़कर वास्तविक विकास कार्य हों—ताकि आने वाली पीढ़ी को वही परेशानियां न झेलनी पड़ें जो आज तक चली आ रही हैं।





